श्रीमद्भगवद्गीता में कुल 18 अध्याय हैं और हर अध्याय में जीवन से जुड़ी कोई ना कोई सीख मिलती है। श्री गीता का पाठ करने से व्यक्ति जीवन की कई परेशानियों से छुटकारा पा सकता है। हम आपको गीता के तीसरे अध्याय का महात्म बताने जा रहे हैं। जिसमे श्री नारायण बोले- हे लक्ष्मी एक शूद्र महामूर्ख अकेला ही एक वन में रहता था, अनर्थों से उसने बहुत सा द्रव्य इकट्ठा किया। किसी कारण से वह सब द्रव्य जाता रहा। अब वह शुद्र बहुत चिंतित रहने लगा। किसी से पूछता कि ऐसा उपाय बताओं जिससे पृथ्वी में गड़ा धन मुझे मिले। किसी से पूछता कोई अंजन बताओ, जिसे लगाने से पृथ्वी में गढ़ा द्रव्य दिखने लगे। तब किसी ने कहा मांस मंदिरा खाया पिया कर, तक वह खोटा कर्म करने लगा, चोरी करने लगा। एक दिन धन की लालसा कर चोरी करने गया, मार्ग में चोरों ने मार दिया। तदनन्तर उसने प्रेत की योनि पाई, उस प्रेत योनि में उसे बड़ा दुख हुआ। एक वट वृक्ष पर सात दिन चिल्लाया करता कि कोई ऐसा भी है जो मुझे इस अधम देह से छुड़ावे? कुछ समय बाद शूद्र की स्त्री से पुत्र जन्मा, जब उसका पुत्र बड़ा हुआ तो एक दिन अपनी माता से उसने पूछा मेरा पिता क्या व्यापार करता था और उनका देहांत किस प्रकार हुआ।
तब उसकी माता ने बताया कि हे बेटा! तेरे पिता के पास बहुत धन था, वह सब यो ही जाता रहा, वह धन के चले जाने से बहुत चिंतित रहने लगा। एक दिन धन की लालसा से चोरी करने गया। लेकिन मार्ग में चोरों ने उसे मार डाला। तब बेटे ने कहा हे माता! उनकी गति कराई थी? माता ने कहा नहीं कराई। बेटे ने पूछा हे माता उनकी गति करानी चाहिए। मां ने कहा अच्छी बात है। तब वह पंडितों से पूछने गया और जाकर प्रार्थना की हे स्वामी मेरा पिता एक दिशा में जाकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। अत: उसका उदार किस तरह होवे? पंडितों ने कहा तू गया जी जाकर उसकी गति कर तब पितरों का उद्धार होगा। यह सुन , वह अपनी माता की आज्ञा लेकर गया जी को गमन किया। प्रयाग राज का दर्शन स्नान करके आगे को चला, रास्ते में एक वृक्ष के नीचे बैठ गया, वहां उसको बड़ा भय प्राप्त हुआ। यह वहीं, वृक्ष था, जहां उसका पिता प्रेत-योनि प्राप्त हुआ था। उसी जगह चोरो ने उसको मारा था। तब उस बालक ने अपना गुरु मंत्र पढ़ा। उसका एक और नियम था। वह एक अध्याय श्री गीता जी का पाठ नित्य किया करता था। उस दिन उसने श्री गीता जी के तीसरे अध्याय का पाठ उस वृक्ष के नीचे बैठकर किया जिसे उसके पिता ने प्रेत की योनि में सुना तो सुनते ही उसकी प्रेत योनि छूट गई और उसने देवदही पाई।
स्वर्ग से विमान आए और वह विमान पर चढ़कर पुत्र के सामने आया और आशीर्वाद देकर कहा हे पुत्र! मैं तेरा पिता हूं, जो मरकर प्रेत हुआ था। तेरे इस पाठ करने से मेरी देवदेही हुई है, अब मेरा उद्धार हुआ है और तेरी कृपा से मैं स्वर्ग को जाता हूं। अब तू गया जी को अपनी खुशी से जा। इतना सुनकर पुत्र ने कहा हे पिताजी! कुछ और आज्ञा करो, जो मैं आपकी सेवा करूं। तब उस देव देही ने कहा देख मेरी सात पीढ़ियों के पितृ नरक में पड़े हैं। अब तू श्री गीता जी के तीसरे अध्याय का पाठ करके उनको भी इस दुख से मुक्ति प्रदान कर। इतना वचन कहकर जब वह देव देही स्वर्ग को गई, तब इस बालकर ने वहीं पर पुन: गीताजी के तीसरे अध्याय का पाठ किया और सब पितरों को उसका पुण्य देकर बैकुण्ठगामी किया। जो प्राणी श्री गीता दी का पाठ करे या श्रावण करे, उसका फल कहा तक कहें, कहने में नहीं आ सकता। तब श्री भगवान जी बोले-हे लक्ष्मी! यह तीसरा अध्याय का जो फल मैंने तुमसे कहा, वह तुमने सुना है।