रिपोर्ट;-राम नरेश ठाकुर [ बिहार ]
पटना; पौराणिक कथााओं के अनुसार सर्व प्रथम त्रेता युग में छठ पूजा का व्रत भगवान श्री राम और माता सीता के द्वारा,एवं द्वापर युग में कर्ण द्वारा किया गया था। लंका पर विजय प्राप्त कर लौटते समय माता सीता भगवान श्री राम और लक्ष्मण के साथ मुग्दल ऋषि के आश्रम मुंगेर में रह कर 6 दिनों तक सूर्य भगवान की उपासना की थी और कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन ही उनको सूर्य देव का आशिर्वाद प्राप्त हुआ था। तभी से छठ पूजा मनाने की प्रथा चली आ रही है। इसका वर्णन वाल्मिकी रामायण में किया गया है।
ऐसी ही एक अन्य मान्यता के अनुसार, छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने थे। वे प्रति दिन प्रातः जलाशय में स्नान कर सूर्य को जल से अर्घ प्रदान करते थे। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है। छठ पर्व सूर्य षष्ठी के नाम से जाना जाता है। षष्ठी तिथि को मनाये जाने के कारण ही इसे छठ पर्व कहते हैं। इस पर्व में सूर्य की पूजा की जाने की वजह से इस त्योहार को सूर्य षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है।
पौराणिक कल से अर्घ्य देते समय बांस के सूप दउरा का ही उपयोग किया जाता था। किन्तु बदलते परिवेश में लोग धीरे धीरे बांस की जगह पीतल से बने सुप दौरा का इस्तेमाल करने लगे हैं। सनातन संस्कृति में बांस को बंश बृद्धि का प्रतीक माना जाता रहा है। यही कारन था की सभी शुभ कार्यों में बांस से बने बस्तुओं का ही उपयोग किया जाता रहा है।
सामाजिक सद्भाव का मिसाल है यह पर्व
पौराणिक काल से चले आ रहे इस महान पर्व की खासियत है की इसमें जाती धर्म का कोई भेद भाव नहीं है। सभी जाती वर्ण के लोग एक साथ एक दूसरे का सहयोग करते हुए एक ही जलाशय या नदी तलाव के तट पर साथ साथ हर्सोल्लाष के साथ इस पर्व को मना कर सामाजिक समरसता का मिसाल कायम करते हैं।